वनस्पति एवं जीव जन्तुओं के बारे में
यह द्वीपसमूह अद्वितीय शानदार सदाबहार ऊष्णकटीबंधीय वर्षावन से समृद्ध है, जो मिश्रित जर्मप्लाज्म का आश्रय है, जिसमें भारतीय, म्यामारी, मलेशियाई और स्थानिक पुष्पों की श्रंखला है। अब तक यहाँ पर लगभग 2200 पौधों की किस्में दर्ज की गई है, जिनमें से 200 स्थानिक हैं और 1300 प्रजातियाँ मुख्यभूमि भारत में नहीं पाई जाती हैं। दक्षिण अण्डमान के जंगलों में प्रचुर मात्रा में एपिफाइटिक वनस्पति पाई जाती है, जिसमें ज्यादातर फर्न और ऑर्किड हैं। मध्य अण्डमान ज्यादातर नम पर्णपाती वन से अच्छादित है। उत्तरी अण्डमान के वनों की विशेषता आर्द्र सदाबहार प्रकार की है जिसमें अधितर लट्ठेदार हैं। उत्तरी निकोबार द्वीपसमूह(कार निकोबार और बट्टीमाल्व सहित) में सदाबहार वन नहीं है जबकि ऐसे वन निकोबार द्वीपसमूह के मध्य और दक्षिण के प्रमुख वनस्पति हैं। घास के मैदान केवल निकोबार में पाए जाते हैं जबकि अण्डमान में लगभग पर्णपाती वन आम है। ये निकोबार में लगभग नहीं के बराबर है। यह असामान्य वन आवरण बारह प्रकारों से बना है,(1) विशालसदाबहार वन, (2) अण्डमान उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन (3) दक्षिण पहाड़ी उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन (4) बेंत के पेड़, (5) गीले बांस के पेड़ (6) अण्डमानअर्ध-सदाबहार वन (7) अण्डमान नम पर्णपाती वन (8) अण्डमान द्वितीयकनम पर्णपाती वन (9) तटीय वन (10) मैंग्रोव वन (11)खारा पानी मिश्रित वन (12) सबमोंटेन पहाड़ी घाटी दलदली वन। वर्तमान में भूमि क्षेत्र का 86.2% वनों से आच्छादित होने का दावा किया जा रहा है।
लकड़ी
अण्डममान के वनों में 200 या इससे अधिक लकड़ी प्रजाति के पेड़ पाए जाते हैं, जिनमें से 30 प्रजातियों को वाणिज्यिक माना जाता है। मुख्य वाणिज्यिक प्रजातियों में गर्जन (डिप्टेरोकार्पस एपीपी) तथा पडाक (प्टेरोकार्पस डल्बेर्जियोइडीज) शामिल हैं। सजावटी लकड़ी जैसे (1) मार्बल वुड (डायोस्पाइरोस मर्मोराटा) (2) पडाक (प्टेरोकार्पस डल्बेर्जियोइडीज) (3) सिल्वर ग्रे (सफेद चुग्लुम में लकड़ी का एक विशेष गठन) (4) चुई (सागेराइया एल्लीप्टिकल) तथा (5) कोक्को (अल्बीज्जिया लेब्बेक) अपने विशेष अनाज गठन के लिए प्रसिद्ध है। सागौन की तुलना में पडॉक अधिक स्थिर होने के कारण इसका उपयोग व्यापक रूप से फर्नीचर बनाने के लिए किया जाता है। अण्डमान पडाक में बर्र और बट्रस की बनावट उसकी आसाधारण और अद्वितीय आकृति और आकर्षण के कारण विश्व प्रसिद्ध है। अण्डमान में मिले सबसे बड़ा बट्रस का टुकड़ा 13'X 7' आकार का एक डाइनिंग टेबल था। बर्र का टुकड़ा इतना बड़ा पाया गया कि उस पर एक बार में आठ लोग बैठ कर भोजन कर सकते थे। पवित्र रूद्राक्ष(एलियोकार्प्स स्पैरिक्स) और सुगंधित धूप एवं राल के पेड़ भी यहाँ पाए जाते हैं।
जीव-जंतु
यह उष्णकटिबंधीय वर्षा वन आस पास के बड़े भू-भाग से अलग थलक होने के बावजूद भी आश्चर्यजनक रूप से कई जीव-जंतुओं से समृद्ध है।
स्तनपायी जीव-जंतु - अण्डमान तथा निकोबार द्वीपसमूह में लगभग 50 प्रकार के वनीय स्तनपायी पाए जाते हैं जिसमें से अधिकतर को बाहर से लया हुआ माना जाता था लेकिन अब यह माना जाता है कि काफी लंबे समय से द्वीपसमूह के अनुकूल होने के कारण ये देशज हैं। यहाँ पर चूहों का सबसे बड़ा समूह पाया जाता हे जिसमें 26 प्रतातियाँ पाई जाती हैं और चिमकादड़ की 14 प्रजातियाँ यहाँ पाई जाती है। बड़े स्तनपायियों में अण्डमान के सुस स्क्रोफा अण्डमानींसिस और निकोबार के एस एस निकोबारिकस नामक जंगली सुअर के दो स्थानिक प्रजातियाँ पाई जाती हैं। अण्डमान जिला में चित्तीदार हिरण एक्सिस एक्सिस, बार्किंग हिरण और सांभर भी पाए जाते हैं। मध्य अण्डमान के इन्टरव्यू आईलैण्ड में काफी संख्या में फराई हाथी पाए जाते हैं। इन हाथियों को एक निजी ठेकदार ने यहाँ लाया था लेकिन बाद में उन्हें जंगल में छोड़ दिया गया।
तितलियाँ एवं कीट-पतंगे
इन द्वीपों में लगभग 225 प्रजातियाँ पाई जाती है जिनमें विश्व के कुछ बड़ी और सबसे शानदार तितलियाँ भी हैं। इसमें दस प्रजातियाँ स्थानिक हैं। माउटहेरियट राष्ट्रीय उद्यान इन द्वीपों की तितली और कीट-पतंगों की विविधता वाला सबसे समृद्ध स्थानों में से एक है।
सीपी
प्राचीन काल से ही रत्नों के अलावा रंग बिरंगी सीपियाँ भी मनुष्य के लिए एक आकर्षण की वस्तु रही है। मनुष्यों द्वारा सीपियों का उपयोग पैसे, आभूषण, संगीत के वाद्ययंत्रों, पीने के प्याले जादू-टोना और बढि़या चीनीमिट्टी के बर्तन बनाने के लिए किया जाता रहा है। वे कई अनुष्ठानों और धार्मिक अनुष्ठानों में भी इसे प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करते थे और
वापस लौटने वाने तीर्थ यात्री इसे क्षमा प्राप्त करने के रूप में धारण करते थे। यह द्वीपमूह पारंपरिक रूप से यहाँ की सीपियों की प्रचुरता विशेष रूप से टर्बो, ट्रोचस,म्यूरेक्स और नॉटिल्स के लिए सुप्रसिद्ध है। वर्ष 1929 के दौरान सबसे पहले वाणिज्यिक रूप से इसका दोहन आरंभ हुआ। इन द्वीपों के लिए सीपी एक महत्वपूर्ण वस्तु है, क्योंकि यहाँ पर टर्बो, ट्रोचस और नॉटिल्स आदि का उपयोग कई कुटीर उद्योगों द्वारा व्यापक स्तर की सजावटी वस्तुएँ तथा गहने बनाने के लिए किया जाता है। विशालकाय क्लैम, ग्रीन मसल्स और ऑस्टर जैसी सीपी का उपयोग खाने के लिए शेलफिशरी के रूप में भी किया जाता है। कुछ सीपी जैसे स्कॅलोप, क्लैम तथा कोक्ल को भट्टी में जला कर खाने योग्य चूना भी तैयार किया जाता है। यूनीवल्व अथवा गेस्ट्रोपोडा श्रेणी की सीपी समूह की 80,000 प्रजातियाँ है। स्केर्ड शंख प्रजाति इसी समूह के अंतग्रत आती है। उनका शरीर विकास के दौरान एक 'घुमावदार' जटिल प्रक्रिया से गजरता है अर्थात उसे कवर करने वाले खोल के साथ आंत का द्रव्य 90 डिग्री तक मुड़ जाता है। रहस्यमय परिस्थितिमें कई बार यह प्रक्रिया विपरीत दिशा में होने लगता है जिससे एक असामान्य खोल का निर्माण होता है अन्यथा यह सामान्य खोल की तरह रहता है। इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है सबसे ज्यादा मांग वाली बाएँ-हाथ से पकड़ कर उपयोग किया जाने वाला शंख है। बाईवाल्व अथवा पेलेसिपोडा सीपी के 20,000 जीवित प्रजातियाँ हैं। उनमें अधिकतर रेत या मिट्टि में दब जाते हैं जैसे पर्ल ऑयस्टर, विंग ऑयस्टर और विशालकाय क्लैम आदि। तीसरा समूह जो अन्य के मुकाबले काफी छोटी होती है जिसे सिफालोपोडा कहा जाता है जिनमें ओक्टोपस, स्क्विड, नॉटिलस आदि शामिल हैं। नरम शारीर वाले जीव सीपी के भीतर रहते हैं जो मैन्टल नामक विशिष्ट एपीथेलियम खोल से ढका होता है जिसमें रहस्यमयी दो परतीय सीपी होती हैं। इसका बाहरी परत अलग रंग और आकृति का जीवाश्म होता है जिसे तकनीकी रूप से 'पेरियोस्ट्राकम' कहा जाता है। पर्यावरण से कैलशियम और लौह उनके रक्त में समाविष्ट हो जाते हैं और बाद में यह इस परत में जमा हो जाते हैं।अन्दर के परत को 'नेक्रे' या 'मोती की जननी' कहा जाता है जिससे मोती की चमक बनती है जो कई सीपियों में आम होती है।
प्रवाल (मूंगा)
प्रवाल जन्तुओं के बड़े समूह से संबंधित है जिसे कोलेन्टेरेटा (डंकने वाले जन्तु) या निडारिया(धागे वाले जन्तु) कहा जाता है। प्रवाल धीमी गति से विकसित होते हैं जिनका विकास दर विशिष्ट स्थानों पर उनके प्रकार के अनुसार होती है। बड़े आकार के प्रवाल का व्यास एक वर्ष में 2 सेंमी तक और उंचाई 1 सेंमी तक हो सकती है, जबकि नाजुक शाखा वाले प्रवाल एक वर्ष में 5 से 10 सेंमी तक बढ़ती है। पथरीली प्रवाल बनाने वाली वास्तविक चट्टान उभयलिंगी अथवा द्वीलिंगी हो सकते हैं वे वर्ष में एक बार शाम के बाद पूर्व-निर्धारित समय पर एक स्थान पर प्रजनन करते हैं। यह प्रक्रिया कहीं-कहीं इतनी तीव्र होती है कि अगली सुबह तक उस क्षेत्र का पानी गुलाबी रहता है। इस प्रकार से प्रवाल खुले समुद्र में बड़ी संख्या में शिशु प्रवाल छोड़ देते हैं। कुछ समय बाद ये शिशु प्रवाल अपने उपयुक्तता के अनुसार बस जाते हैं और लैंगिक प्रजनन के माध्यम से नए कोलोनी का निर्माण करना आरम्भ कर देते हैं। उनकी रूपात्मक विशेषताएँ उस वातावरण के साथ बदलती हैं जिसमें वे बसते हैं। इस अजीबोगरीब चरित्र के कारण उन्हें अक्सर 'प्लास्टिक के जन्तु' कहा जाता है।
चट्टानी प्रवाल को आम तौर पर भित्ती निर्माण करने वाला और भित्ती निर्माण नहीं करने वाले प्रवाल में विभाजित किया जा सकता है। भित्ती बनाने वाले को हेर्माटाइपिक कहा जाता है, जबकिअन्य को एहर्मेटाइपिक प्रवाल के रूप में जाना जाता है। भित्ती बनाने वाले कठोर कैलकेरियस कंकाल होता है और जीवित रहने के लिए इन्हें पौधों की तरह धूप की जरूरत होती है। दूसरी ओर, भित्ती निर्माण नहीं करने वाले प्रवाल बिल्कुल पथरीले ढांचे से रहीत होते हैं और सूरज की रोशनी के बिनाअच्छी तरह से रह सकते हैं। उनमें से कुछ प्रोटीन आधारित ठोस कंकाल बनाने में सक्षम हैं।
मछलियाँ
समुद्र में प्रत्येक जीवन रूप अपने विशेष क्षेत्र तक ही सीमित है, जहाँ दबाव, प्रकाश, तापमान और लवणता कमोबेश स्थिर है। इस स्थिर वातावरण में कुछ जीव अपने पूरे इतिहास में अपरिवर्तित रहे हैं। मछलियों के समूह में से एक वर्तमान समय में प्रसिद्ध मछली कोलैकैंथ, जिसे 60 वर्षों से विलुप्त माना जाता है, उसी प्रकार से ही अपने रिश्तेदारों की तरह बनी हुई है जैसा की जीवाश्म में दिखई पड़ता है। मछलियाँ जल जगत की स्वामी हैं। वे 360 मिलियन वर्षों से अधिक समय से इसमें जी रहीं हैं। विज्ञान के अनुसार आज हमारे यहाँ लगभग 40,000 प्रकार की मछलियाँ पाई जाती हैं जिनमें 10 मिमी(फिलीपाइन गोबी) से 21 मी.(व्हेल शार्क) तक के आकार की मछलियाँ पाई जाती है। कुछ चपटे आकार के और कुछ गोल आकार के, कई धुरी आकार के और कुछ साँप के आकार के होते हैं, फिर भी उस वातावरण के आधार पर संकुचित होते हैं जिसमें वे रहते हैं या जीवन का विशेष तरीका होता है।
समुद्री जलजीवशाला
आज भी समुद्री मछलियों एवं जीव-जन्तुओं का पालन एक रहस्य बना हुआ है। यह पशुधन प्रबंधन के सबसे जटिल पहलुओं में से एक है। इसमें शामिल पशुपालन को मुख्य रूप से जल रसायन और सूक्ष्म जीव विज्ञान के माध्यम से पोषित किया जाता है। उष्ण्कटिबंधीय प्रवाल भित्तियों का रखरखाव आम तौर पर काँच के बक्से में किया जाता है जिन्हें हम समुद्री जलजीशाला के नाम से जानते हैं। ये जीव-जन्तु एक बंधे हुए वातावरण में नाजुक हो जाते हैं क्योंकि वे जिस प्राकृतिक वातावरण में रहते हैं वह इतना विषम, जटिल और गतिशील होते हैं कि हर ज्वार से एक अलग स्थिति उत्पन्न होती है जिसे कृत्रिम रूप से तैयार करना बहुत ही मुश्किल है। हालांकि, मई 1853 में जब से लंदन में पहला उष्णकटिबंधीय समुद्री जलजीवशाला सार्वजनिक किया गया तब से हम एक ऐसी प्रणाली का अभ्यास करने में सक्षम हैं जहाँ इन जीव-जन्तुओं को अपने नए वातावरण में खुश रहना सिखाया जाता है।